CBSE Class 12 Hindi आलेख लेखन

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CBSE Class 12 Hindi आलेख लेखन

प्रश्नः 1.
आलेख के विषय में बताइए।
उत्तरः
आलेख वास्तव में लेख का ही प्रतिरूप होता है। यह आकार में लेख से बड़ा होता है। कई लोग इसे निबंध का रूप भी मानते हैं जो कि उचित भी है। लेख में सामान्यत: किसी एक विषय से संबंधित विचार होते हैं। आलेख में ‘आ’ उपसर्ग लगता है जो कि यह प्रकट करता है कि आलेख सम्यक् और संपूर्ण होना चाहिए। आलेख गद्य की वह विधा है जो किसी एक विषय पर सर्वांगपूर्ण और सम्यक् विचार प्रस्तुत करती है।

प्रश्नः 2.
सार्थक आलेख के गुण बताइए।
उत्तरः
सार्थक आलेख के निम्नलिखित गुण हैं –

  • नवीनता एवं ताजगी।
  • जिज्ञासाशील।
  • विचार स्पष्ट और बेबाकीपूर्ण ।
  • भाषा सहज, सरल और प्रभावशाली।
  • एक ही बात पुनः न लिखी जाए।
  • विश्लेषण शैली का प्रयोग।
  • आलेख ज्वलंत मुद्दों, विषयों और महत्त्वपूर्ण चरित्रों पर लिखा जाना चाहिए।
  • आलेख का आकार विस्तार पूर्ण नहीं होना चाहिए।
  • संबंधित बातों का पूरी तरह से उल्लेख हो।

उदाहरण

1. भारतीय क्रिकेट का सरताज : सचिन तेंदुलकर

पिछले पंद्रह सालों से भारत के लोग जिन-जिन हस्तियों के दीवाने हैं-उनमें एक गौरवशाली नाम है-सचिन तेंदुलकर। जैसे अमिताभ का अभिनय में मुकाबला नहीं, वैसे सचिन का क्रिकेट में कोई सानी नहीं। संसार-भर में एक यही खिलाड़ी है जिसने टेस्ट-क्रिकेट के साथ-साथ वन-डे क्रिकेट में भी सर्वाधिक शतक बनाए हैं। अभी उसके क्रिकेट जीवन के कई वर्ष और बाकी हैं। यदि आगे आने वाला समय भी ऐसा ही गौरवशाली रहा तो उनके रिकार्ड को तोड़ने के लिए भगवान को फिर से नया अवतार लेना पड़ेगा। इसीलिए कुछ क्रिकेट-प्रेमी सचिन को क्रिकेट का भगवान तक कहते हैं। उसके प्रशंसकों ने हनुमान-चालीसा की तर्ज पर सचिन-चालीसा भी लिख दी है।

मुंबई में बांद्रा-स्थित हाउसिंग सोसाइटी में रहने वाला सचिन इतनी ऊँचाइयों पर पहुँचने पर भी मासूम और विनयी है। अहंकार तो उसे छू तक नहीं गया है। अब भी उसे अपने बचपन के दोस्तों के साथ वैसा ही लगाव है जैसा पहले था। सचिन अपने परिवार के साथ बिताए हुए क्षणों को सर्वाधिक प्रिय क्षण मानता है। इतना व्यस्त होने पर भी उसे अपने पुत्र का टिफिन स्कूल पहुँचाना अच्छा लगता है।

सचिन ने केवल 15 वर्ष की आयु में पाकिस्तान की धरती पर अपने क्रिकेट-जीवन का पहला शतक जमाया था जो अपने-आप में एक रिकार्ड है। उसके बाद एक-पर-एक रिकार्ड बनते चले गए। अभी वह 21 वर्ष का भी नहीं हुआ था कि उसने टेस्ट क्रिकेट में 7 शतक ठोक दिए थे। उन्हें खेलता देखकर भारतीय लिटिल मास्टर सुनील गावस्कर कहते थे-सचिन मेरा ही प्रतिरूप है।

2.ग्रामीण संसाधनों के बल पर आर्थिक स्वतंत्रता

समाज में सकारात्मक बदलाव के तीन ही मुख्य सूचक होते हैं। आचरण, आर्थिकी व संगठनात्मक पहल। इन तीनों से ही समाज को असली बल मिलता है और प्रगति के रास्ते भी तैयार होते हैं। इन सबको प्रभाव में लाने के लिए सामूहिक पहल ही सही दिशा दे सकती है।

हेस्को (हिमालयन एन्वायर्नमेंटल स्टडीज कन्जर्वेशन ऑर्गेनाइजेशन) ने अपनी कार्यशैली में ये तीन मुद्दे केंद्र में रखकर सामाजिक यात्रा शुरू की। कुछ बातें स्पष्ट रूप से तय थीं कि किसी भी प्रयोग को स्थायी परिणाम तक पहुँचाना है तो स्थानीय भागीदारी, संसाधन और बाज़ार की सही समझ के बिना यह संभव नहीं होगा। वजह यह है कि बेहतर आर्थिकी गाँव समाज की पहली चिंता है और उसका स्थायी हल स्थानीय उत्पादों तथा संसाधनों से ही संभव है। सही, सरल व सस्ती तकनीक आर्थिक क्रांति का सबसे बड़ा माध्यम है। स्थानीय उत्पादों पर आधारित ब्रांडिंग गाँवों के उत्पादों पर उनका एकाधिकार भी तय कर सकती है और ये उत्पाद गुणवत्ता व पोषकता के लिए हमेशा पहचान बना सकते हैं, इसलिए बाज़ार के अवसर भी बढ़ जाते हैं।

गाँवों की बदलती आर्थिकी की दो बड़ी आवश्यकताएँ होती हैं। संगठनात्मक पहल, बराबरी व साझेदारी तय करती है। किसी • भी आर्थिक-सामाजिक पहल की बहुत-सी चुनौतियाँ संगठन के दम पर निपटाई जाती हैं। सामूहिक सामाजिक पहलुओं का अपना एक चरित्र व आचरण बन जाता है, जो आंदोलन को भटकने नहीं देता। हेस्को की इसी शैली ने हिमालय के घराटों में पनबिजली व पन उद्योगों की बड़ी क्रांति पैदा की। जहाँ ये घराट (पन चक्कियाँ) मृतप्राय हो गई थीं, अब एक बड़े आंदोलन के रूप में आटा पिसाई, धान कुटाई ही नहीं बल्कि पनबिजली पैदा कर घराटी नए सम्मान के साथ समाज में जगह बना चुके हैं।

इनके संगठन और आचरण ने मिलकर केंद्र व राज्यों में राष्ट्रीय घराट योजना के लिए सरकारों को बाध्य कर दिया। एक घराट की मासिक आय पहले 1,000 रुपए तक थी, आज वह 8,000 से 10,000 रुपए कमाता है। आज हज़ारों घराट नए अवतार में स्थानीय बिजली व डीजल चक्कियों को सीधे टक्कर दे रहे हैं। इन्होंने बाज़ार में अपना घराट आटा उतार दिया है, जो ज़्यादा पौष्टिक है।

फल-अनाज उत्पाद गाँवों को बहुत देकर नहीं जाते। विडंबना यह है कि उत्पादक या उपभोक्ता की बजाय सारा लाभ इनके बाजार या प्रसंस्करण में जुटा बीच का वर्ग ले जाता है। 1990 के दौरान हेस्को ने स्थानीय फल-फूलों को बेहतर मूल्य देने के लिए पहली प्रसंस्करण इकाई डाली और जैम-जेली जूस बनाने की शुरुआत की। देखते-देखते युवाओं-महिलाओं ने ऐसी इकाइयाँ डालनी शुरू की और आज उत्तराखंड में सैकड़ों प्रोसेसिंग इकाइयाँ काम कर रही हैं। एक-दूसरे के उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए संगठन भी खड़े कर दिए।

उत्तराखंड फ्रूट प्रोसेसिंग एसोसिएशन इसी का परिणाम है। ये जहाँ, अपने आपसी मुद्दों के प्रति सजग रहते हैं वहीं, सरकार को भी टोक-टोक कर रास्ता दिखाने की कोशिश करते हैं। ऐसे बहुत से प्रयोगों ने आज बड़ी जगह बना ली है। उत्तराखंड में मिस्त्री, लोहार, कारपेंटर आज नए विज्ञान व तकनीक के सहारे बेहतर आय कमाने लगे हैं। पहले पत्थरों का काम, स्थानीय कृषि उपकरण व कुर्सी-मेज के काम शहरों के नए उत्पादनों के आगे फीके पड़ जाते थे। आज ये नए विज्ञान व तकनीक से लैस हैं। इनके संगठन ने इन्हें अपने हकों के लिए लड़ना भी सिखाया है।

हेस्को पिछले 30 वर्षों में ऐसे आंदोलन के रूप में खड़ा हुआ, जिसमें हिमालय के ही नहीं बल्कि देश के कई संगठनों को भी दिशा दी है और ये आंदोलन मात्र आर्थिक ही नहीं था बल्कि समाज में संगठनात्मक व आचरण की मज़बूत पहल बनकर खड़ा हो गया। गाँवों की आर्थिकी का यह नया रास्ता अब राज्यों के बाद राष्ट्रीय आंदोलन होगा। जहाँ ग्रामीण संसाधनों पर आधारित गाँवों की अधिक स्वतंत्रता की पहल होगी।

3.कूड़े के ढेर हैं दुनिया की अगली चुनौती

शिक्षाविदों और पर्यावरण वैज्ञानिकों द्वारा एकत्रित जानकारी के आधार पर विश्व में अपशिष्ट के पचास महाकाय क्षेत्र हैं : 18 अफ्रीका में, 17 एशिया में, आठ दक्षिण अमेरिका में, पाँच मध्य अमेरिका और कैरिबियन में तथा दो यूरोप में। कूड़े की विशाल बस्तियाँ चीन में भी हैं, पर उनकी सही गिनती और ब्योरा पाना असंभव है। विश्व की आधी आबादी को बेसिक वेस्ट मैनेजमेंट

सुविधा उपलब्ध न होने के कारण अनुमानतः दुनिया का लगभग चालीस फीसदी कूड़ा खुले में सड़ता है, जो निकट बस्तियों में रहनेवालों के स्वास्थ्य के लिए घातक है। समृद्ध देशों में कूड़े की रीसाइकिलिंग महँगी पड़ती है। गरीब देशों के लिए कूड़ा अतिरिक्त आय का साधन बनता है, भले म अपशिष्ट को योजनाबद्ध और सुरक्षित तरीके से ठिकाने लगाने के लिए उनके पास धन व संसाधन का घोर अभाव हो। कारखानों, अस्पतालों से निकला विषाक्त मल ढोने वालों और उसकी री-साइकिलिंग करनेवालों के प्रशिक्षण या स्वास्थ्य सुरक्षा का कोई प्रबंध नहीं। वयस्क और युवा कूड़ा कर्मी नंगे हाथों काम करते हुए जख्मी होते हैं, उसमें से खाद्य सामग्री टटोलते और खाते फिरते हैं।

भीषण गरमी में बिना ढका-समेटा और सड़ता अपशिष्ट खतरनाक कीटाणु और जहरीली गैस पैदा करता है। बारिश में इसमें से रिसता पानी भूमिगत जल में समाता है और आसपास के नदी, नालों, जलाशयों को प्रदूषित करता है। जलते कूड़े की जहरीली गैस और घोर प्रदूषण के बीच जीविका कमाने वालों और निकटवर्ती बस्तियों में रहनेवाले लोगों के स्वास्थ्य को दीर्घावधि में जो हानि निश्चित है, उनका जीवन काल कितना घटा है, उसके प्रति विश्व स्वास्थ्य संगठन कितना चिंतित है? यह ऐसा टाइम बम है, जो फटने पर विश्व जन स्वास्थ्य में प्रलय ला सकता है। संयुक्त राष्ट्र को ब्रिटेन की लीड्स यूनिवर्सिटी में संसाधन प्रयोग कुशलता के लेक्चरार कॉस्टस वेलिस की चेतावनी है कि खुले कूड़े के विशालकाय ढेर मलेरिया, टाइफाइड, कैंसर और पेट, त्वचा, सांस, आँख तथा जानलेवा जेनेटिक और संक्रामक रोगों के जनक हैं।

विकसित देशों की कई ज़रूरतें पिछड़े देशों से पूरी होती हैं। ज़रूरतमंद देशों की ‘स्वेटशॉप्स’ में बना सामान लागत से कई गुनी अधिक कीमत पर पश्चिमी देशों की दुकानों में सजता है। बड़ी बात नहीं कि कूड़े से ऊर्जा उत्पादन में अग्रणी जर्मनी का अनुसरण करने वाले अन्य यूरोपीय देश अफ्रीका जैसे पिछड़े देशों से कूड़ा आयात करने लगें। वह कूड़ा, जो सर्वव्यापी उपभोक्तावाद के रूप में पश्चिम की देन का ही अंजाम है। यह भी निश्चित है कि तब संपूर्ण अपशिष्ट के बाकायदा ‘वेस्ट मैनेजमेंट’ के कड़े से कड़े नियम लागू किए जाने के लिए शोर भी उन्हीं की तरफ से उठेगा कि आयातित कडा पूर्ण रूप से प्रदूषण रहित और आरोग्यकर हो।

मुंबई की देओनार कचरा बस्ती को ऐकरा (घाना), इबादान (नाइजीरिया), नैरोबी (केन्या), बेकैसी (इंडोनेशिया) जैसी अन्य विशाल कूड़ा बस्तियों की दादी-नानी कहा गया है। 1927 से अब तक इसमें 170 लाख टन कूड़े की आमद आंकी गई है। इससे लगभग छह मील की परिधि में रहने वाली पचास लाख आबादी के विरोध पर इसे धीरे-धीरे बंद किया जा रहा है, पर अब भी 1,500 लोग यहाँ कूड़ा बीनने, छाँटने के काम से रोजी कमाते हैं। विश्व के समृद्ध देशों को भारतोन्मुख करने का सबसे सार्थक प्रयास ऊर्जा उत्पादन में हो सकता है। कूड़े से ऊर्जा उत्पादन में अग्रणी यूरोपीय देशों की तकनीक भारत की कूड़ा बस्तियों को अभिशाप से वरदान में बदल सकती है।
CBSE Class 12 Hindi जनसंचार माध्यम और लेखन - 2

4. प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना

एनडीए सरकार ने किसानों के हित में बड़ा कदम उठाते हुए प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को मंजूरी दी है, जो इसी साल खरीफ सीजन से लागू होगी। इससे किसानों को प्राकृतिक या स्थानीय आपदा के चलते फ़सल को हुए नुकसान की भरपाई हो सकेगी। इसके तहत किसानों को बहुत कम प्रीमियम, जैसे रबी फसलों के लिए अधिकतम 1.5 प्रतिशत, खरीफ फसलों के लिए दो फीसदी और वार्षिक, वाणिज्यक एवं बागवानी फसलों के लिए पाँच प्रतिशत देना होगा जबकि किसानों को बीमा राशि पूरी मिलेगी। सरकार इस पर करीब 8,800 करोड़ रुपये खर्च करेगी और इससे साढ़े तेरह करोड़ किसानों को लाभ होगा।

यह कदम उठाने की ज़रूरत इसलिए पड़ी, क्योंकि विगत में शुरू की गई फ़सल बीमा योजनाएँ अब तक कारगर नहीं रही हैं। पिछली एनडीए सरकार ने 1999 में कृषि क्षेत्र में बीमा की शुरूआत कर एक अभिनव पहल की थी, पर यूपीए सरकार ने 2010 में इसमें कई ऐसे बदलाव कर दिए, जो किसानों के लिए घातक साबित हुए। मोदी सरकार की यह फ़सल बीमा योजना ‘एक राष्ट्र, एक योजना’ तथा ‘वन सीजन, वन प्रीमियम’ के सिद्धांत पर आधारित है। इसमें बीमा राशि सीधे किसान के बैंक खाते में जाएगी।

यूपीए सरकार के कार्यकाल में शुरू हुई ‘संशोधित राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना’ (एमएनएआइएस) की सबसे बड़ी खामी यह थी कि उसमें प्रीमियम अधिक हो जाने पर एक अधिकतम सीमा निर्धारित रहती थी। नतीजतन किसान को मिलने वाली दावा राशि भी कम हो जाती थी।

जबकि नई बीमा योजना में कोई किसान यदि तीस हजार रुपये का बीमा कराता है, तो 22 प्रतिशत प्रीमियम होने पर भी मात्र 600 रुपये देने होंगे, जबकि बाकी के 6,000 रुपये का भुगतान सरकार करेगी। अगर किसान का शत-प्रतिशत नुकसान होता है, तो उसे 30 हजार रुपये की पूरी दावा राशि प्राप्त होगी। पहले किसानों को 15 प्रतिशत तक प्रीमियम देना पड़ता था, पर अब इसे घटाकर डेढ़ से दो फीसदी कर दिया गया है। साथ ही, ओलावृष्टि, जलभराव और भूस्खलन को स्थानीय आपदा माना जाएगा। इसमें पोस्ट हार्वेस्ट नुकसान को भी शामिल किया गया है। फ़सल कटने के 14 दिन तक फ़सल खेत में है और उस दौरान कोई आपदा आ जाती है, तो किसानों को दावा राशि प्राप्त हो सकेगी। पहले यह सुविधा सिर्फ तटीय क्षेत्रों को प्राप्त थी।

अब तक देखा गया है कि फ़सल बीमा होने के बावजूद किसानों को बीमित राशि लेने के लिए जगह-जगह चक्कर लगाने पड़ते हैं। इस योजना में प्रौद्योगिकी के उपयोग का फैसला किया गया है। इससे फ़सल कटाई/नुकसान का आकलन शीघ्र और सही हो सकेगा और किसानों को दावा राशि त्वरित रूप से मिल सकेगी। इसके लिए सरकार रिमोट सेंसिंग तकनीक और स्मार्टफोन का इस्तेमाल करेगी। कुल मिलाकर, सरकार ने किसानों के हित में एक समग्र योजना की शुरूआत की है, जिसका लाभ पूरे देश के किसानों को मिलेगा।

5. नए सामाजिक बदलाव

जब भारत आर्थिक वृद्धि की दर बढ़ाने के साथ सबको तरक्की का लाभ देने और शिक्षा, ऊर्जा के अधिकतम उपयोग के साथ जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सामना कर रहा है तो सामाजिक उद्यमशीलता (सोशल आंत्रप्रेन्योरशिप) स्थायी सामाजिक बदलाव का सबसे बड़ा जरिया साबित हो रहा है। सोशल आंत्रप्रेन्योर बुद्ध की करुणा और उद्योगपति की व्यावसायिक बुद्धिमानी का मिश्रण होता है। यानी वे उद्यमशीलता का माध्यम के रूप में इस्तेमाल करने वाला बदलाव के वाहक हैं।

समाज की ज्वलंत समस्याओं के लिए उसके पास इनोवेटिव समाधान होते हैं, जिन्हें सुलझाने के लिए किसी बाधा को आड़े नहीं आने देता। पिछले एक दशक में देश में बदलाव का यह जरिया बहुत तेजी से बढ़ा है और इसमें आईआईएम और आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों के युवाओं ने गहरी रुचि दिखाई है। एक उदाहरण बिहार के ऐसे पिछड़े इलाकों का दिया जा सकता है, जहाँ अब तक बिजली नहीं पहुंची थी। सामाजिक उद्यमशीलता के जरिये भूसे से बिजली बनाकर ये इलाके रोशन किए गए हैं।

भारत में सामाजिक उदयमों के जरिये शिक्षा से स्वास्थ्य रक्षा, अक्षय ऊर्जा, कचरा प्रबंधन, ई-लर्निंग व ई-बिजनेस, आवास, झुग्गी-झोपड़ियों का विकास, जलप्रदाय व स्वच्छता, महिलाओं के खिलाफ हिंसा की रोकथाम और महिलाओं, बच्चों व बुजर्गों से संबंधित कई समस्याओं को हल किया जा रहा है। इन सामाजिक उद्यमों का मुख्य उद्देश्य देश के वंचितों व हाशिये पर पड़े तबकों को टिकाऊ और गरिमामय जिंदगी मुहैया कराना है। खास बात यह है कि मुनाफे को ध्यान में रखते हुए सामाजिक बदलाव हासिल करने के स्तर में फर्क हो सकता है, लेकिन हर प्रयास में आर्थिक टिकाऊपन को आधार बनाया गया है, क्योंकि इसी से स्थायी बदलाव लाया जा सकता है।

इसका एक तरीका ऐसे बिजनेस मॉडल अपनाना है, जो सामाजिक समस्याएँ सुलझाने के लिए सस्ते उत्पादों व सेवाओं पर जोर देते हैं। लक्ष्य ऐसा सामाजिक बदलाव लाना है, जो व्यक्तिगत मुनाफे से मर्यादित नहीं है। गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) की बजाय सामाजिक आंत्रप्रेन्योरशिप व्यापक पैमाने पर बदलाव लाता है। एनजीओ से वे इस मायने में अलग हैं कि उनका उद्देश्य छोटे पैमाने और निश्चित समय-अवधि से सीमित बदलाव की जगह व्यापक आधार वाले, दीर्घावधि बदलाव लाना है।

फिर एनजीओ आयोजनों, गतिविधियों और कभी-कभी प्रोडक्ट बेचकर पैसा जुटाते हैं, लेकिन पैसा इकट्ठा करने में समय और ऊर्जा लगती है, जिनका उपयोग सीधे काम करने और प्रोडक्ट की मार्केटिंग में किया जा सकता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि सामाजिक आंत्रप्रेन्योर प्रभावित लोगों को निष्क्रिय लाभान्वितों की बजाय समाधान का हिस्सा मानता है। मसलन, माइक्रो फाइनेंस को लें। कई संगठन कमज़ोर तबकों खासतौर पर महिलाओं को कम राशि के लोन देकर उनकी जिंदगी बदल रहे हैं। लोन के जरिये वे कोई काम शुरू करते हैं और उन्हें आजीविका का स्थायी जरिया मिलता है। देश में काम कर रहे कुछ माइक्रो फाइनेंस को लें।

कई संगठन कमज़ोर तबकों खासतौर पर महिलाओं को कम राशि के लोन देकर उनकी जिंदगी बदल रहे हैं। लोन के जरिये वे कोई काम शुरू करते हैं और उन्हें आजीविका का स्थायी जरिया मिलता है। देश में काम कर रहे कुछ माइक्रो फाइनेंस संगठन दुनिया के सबसे बड़े और तेजी से बढ़ते ऐसे संगठन हैं। सामाजिक उदयमशीलता.के जरिये जिन क्षेत्रों में बदलाव लाया जा रहा है उनमें सबसे पहले हैं सस्ती स्वास्थ्य-रक्षा सुविधाएँ। देश में 60 फीसदी आबादी गाँवों व छोटे कस्बों में रहती हैं, जबकि 70 फीसदी मध्यम व बड़े अस्पताल बड़े शहरों व महानगरों में है। इससे भी बड़ी बात यह है कि 80 फीसदी माँग प्राथमिक व द्वितीयक स्वास्थ्य केंद्रों के लिए हैं और केवल 30 फीसदी अस्पताल से सुविधाएं मुहैया कराते हैं। स्वास्थ्य रक्षा की बड़ी खामी सामाजिक उद्यमों के द्वारा दूर की जा रही है।

इसी तरह शहरी आवास बाजार में 1.88 आवासीय इकाइयों की कमी है। सामाजिक उद्यमशीलता से निर्माण लागत व समय में कमी लाकर बदलाव लाया जा रहा है। पानी और स्वच्छता के क्षेत्र में भी इस तरह का बदलाव देखा जा रहा है। जलदोहन और संग्रहण, सप्लाई और वितरण और कचना प्रबंधन। इसमें खासतौर पर वर्षा के पानी के उपयोग पर काम हो रहा है। स्वच्छता में खास मॉडल में घरों में टॉयलेट का निर्माण, भुगतान पर इस्तेमाल किए जा सकने वाले टॉयलेट और ‘इकोसन टॉयलेट’ के जरिये बायो फ्यूल बनाया जा रहा है। देश में 70 फीसदी से अधिक ग्रामीण आबादी को खेती से आजीविका मिलती है। इसकी खामियों को दूर कर आर्थिक व सामाजिक बदलाव लाया जा रहा है। इसमें फ़सल आने के पहले की सुविधाओं और फ़सल को बाजार तक पहुँचाने की श्रृंखला पर काम करके बदलाव लाया जा रहा है।

6. किस-किसको आरक्षण

गुड़गाँव में चार पहिया गाड़ियों के शोरूम में कुछ लोग पहुँचते हैं। वे कई शोरूम जाते हैं और हर जगह एक ही लाइन बोलते हैं, ‘पाँच चूड़ियों वाली गड्डी कठै सै?’ पाँच चूड़ियों का रहस्य अब शोरूम के लोग जान चुके हैं, वह ऑडी कार के शोरूम की ओर इशारा करते हैं। वहाँ पहुँचते ही ये लोग खुश हो जाते हैं। इनमें से कोई बोलता है, ‘चौधरी का छोरा यो हीले ग्या… हम भी ले चलते हैं।’ ये है हरियाणा का एक सीन।

जाटों को पिछड़े वर्ग में शामिल करने और उनकी आरक्षण की माँग की चर्चा होने पर अक्सर दूसरी जतियों के लोग कुछ ऐसे ही दिलचस्प किस्से सुनाते हैं। कई बार इसी से मिलते-जुलते किस्से राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गुर्जरों और गुजरात के पटेलों के बारे में भी सुनने को मिल जाते हैं। जाहिर है जाटों, गुर्जरों और पटेलों के बारे में यह बातें इसलिए प्रचारित हो पा रही हैं, क्योंकि उनकी समृद्धि को लेकर यह एक तरह की आम समझ है।

सोशल मीडिया पर घूम रहे एक संदेश में दावा किया जा रहा है कि हरियाणा में 63 फीसदी मंत्री, 71 फीसदी एचसीएस, 60 फीसदी आइएएस, 69 फीसदी आइपीएस, 58 फीसदी एलायड ऑफिसर, 71 फीसदी अन्य सरकारी कर्मचारी जाट हैं। दावा यह भी है कि राज्य के 43 फीसदी पेट्रोल पंप, 41 फीसदी गैस एजेंसी, 39 फीसदी रीयल स्टेट और 69 फीसदी हथियारों के लाइसेंस जाटों के हैं। पर मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल के हरियाणा राज्य संयोजक और पेशे से वकील पंकज त्यागी इसे समृद्धि की ऊपरी सतह मानते हैं, जो जाटों की असलियत को ढक देती है। वे कहते हैं, ‘केंद्र सरकार का आँकड़ा है कि देश के चालीस फीसदी किसान खेती छोड़ चुके हैं।

छोटी जोत के किसानों के लिए खेती घाटे का सौदा है। हरियाणा में 80 फ़ीसदी किसानों को दो एकड़ या इससे कम की खेती है। दिल्ली में जाति उन्मूलन आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक जेपी नरेला पूछते हैं, ‘हरियाणा में जाटों को पिछड़ी जाति में आरक्षण क्यों मिले? क्यों देश के हजारों करोड़ रुपए बर्बाद हों और आम लोग उनकी गलत माँगों के लिए सांसत सहें।’ राजस्थान में मज़दूर किसान शक्ति संगठन के साथ सक्रिय भंवर मेघवंशी के अनुसार, ‘हरियाणा में किस जाति ने जाटों को अस्पृश्य माना, जातीय आधार पर उत्पीड़न किया, गाँव निकाला दिया, समाज में बराबरी नहीं दी और ज़मीनों पर क़ब्जा किया। इनमें से एक भी सवाल का जवाब जाटों के पक्ष में नहीं जाता।

आरक्षण की व्यवस्था सिर्फ उन जातियों को प्राप्त है जो सामाजिक रूप से पिछड़ी हैं, दबंगों को नहीं।’ आंदोलन जोड़ता है लेकिन अराजकता भयभीत और मज़बूर करती है और वह मज़बूरी ही है कि हरियाणा सरकार ने आने वाले विधानसभा सत्र में बिल लाकर जाटों की माँगें मानने का वादा कर दिया है, राज्य में आतंक का पर्याय बन चुका ‘धरना’ अब खत्म हो चुका है। भाजपा सांसद और दलित नेता उदित राज सवाल करते हैं, ‘गाड़ियाँ फूंकना, सड़क उखाड़ देना, मॉल जलाने को क्या आंदोलन कहेंगे। हमने भी बहुत आंदोलन किए हैं पर ऐसा तो कभी नहीं किया जैसा हरियाणा में देखा। आंदोलन सृजन के लिए होता है या विध्वंस के लिए।’ राजस्थान के झुंझनू जिले के किसान नेता श्रीचंद डुढ़ी के मुताबिक, ‘यहाँ पार्टियाँ आरक्षण के नाम पर रोज़गार का सपना दिखा एक-दूसरी जातियों को लड़ा रही हैं। आज जाट हैं कल कोई और होगा। पर जो नहीं होगा वह है इनकी माँग का पूरा होना।’

औद्योगिक संस्था एसोचैम के आँकड़ों के मुताबिक सप्ताह भर चले इस आंदोलन में 36 हजार करोड़ से अधिक का नुकसान हुआ है। हरियाणा रोडवेज को 20 करोड़ तो उत्तर रेलवे को 2 सौ करोड़ की चपत लगी है। लाखों लोगों का काम बाधित होने के साथ कई महत्त्वपूर्ण परीक्षाएँ रद्द करनी पड़ीं, बीस से ज़्यादा जान गई है और सैकड़ों घायल हुए हैं।

ऐसे में सवाल वही कि आखिर यह आंदोलन किस पार्टी के नेतृत्व में हुआ। नेता कौन था. इसका। जाटों की छोटी होती जोत, महँगी होती खेती और परिवार चलाने में हो रही मुश्किल का रामबाण इलाज आरक्षण में है, जहर की यह पूड़िया किसने बाँटी। दोषी कौन है, आग किसने लगाई, तरीका किसने सुझाया और सजा किसको मिले। सड़क पर तांडव मचाती युवाओं की भीड़ किसके वादों से इस कदर खफा, निराश और कुंठित थी कि अपने ही संसाधनों को फूंककर माँग की आँच को शांत करती रही। फायदा किसका हुआ? कौन हैं वो लोग जाट जिनकी तरफ उम्मीद भरी निगाहों से देख रहे हैं कि कल मेरा बेटा सरकारी नौकरी में होगा।

हरियाणा हाईकोर्ट के वरिष्ठ वकील और स्वराज अभियान के प्रवक्ता राजीव गोदारा की राय में, जाटों की समस्याएँ हैं, बेकारी बहुत है लेकिन उसका हल अराजकता और अपने खिलाफ लोगों को खड़ाकर कैसे निकाला जा सकता है। हिसार के भगाणा आंदोलन के नेता सतीश काजला की राय में जाटों को आरक्षण नहीं चाहिए। वह अराजकता फैलाकर राज्य की उन 35 जातियों को डराना चाहते हैं जिनको आरक्षण का लाभ मिल रहा है। वह चाहते हैं कि हम उनके डर से आरक्षण छोड़ दें। आर्थिक आधार पर आरक्षण की माँग गुजरात और हरियाणा से उठी है, जहाँ भाजपा की सरकारें हैं। आरएसएस हमेशा ही जातीय आधार पर आरक्षण की विरोधी और आर्थिक आधार की समर्थक रही है। काजला के इस आशंका के मद्देनज़र आरक्षण में शामिल भीड़ की आवाज़ को समझने की ज़रूरत है।

मीडिया से बोलते हुए जाट बार-बार कह रहे हैं कि आर्थिक आधार पर आरक्षण दीजिए और नहीं दे सकते तो सबका खत्म कर दीजिए। जुलाई 2015 में गुजरात में पिछड़े वर्ग के तहत आरक्षण माँग रहे पाटिदारों के आंदोलन से भी इसी तरह का रोश उभरा था। पाटिदारों के नेता के रूप में उभरे हार्दिक पटेल जब अपनी माँग को न्यायोचित नहीं ठहरा पाते हैं तो तुरंत वह कह पड़ते हैं कि हमें नहीं दे सकते तो सबका खत्म करिए।

7. ग्रामीण माँग बढ़ाने की ज़रूरत

पिछले वर्ष जब वित्त मंत्री अरुण जेटली अपने पहले पूर्ण बजट पर बोलने के लिए खड़े हुए थे, तब अनेक लोग यह उम्मीद कर रहे थे कि वह कोई ऐसा नीतिगत दस्तावेज पेश करेंगे, जिससे मोदी सरकार के वायदों को पूरा करने की ठोस ज़मीन तैयार हो। इस बार जब वह बजट पेश करेंगे, तो अपेक्षाएँ अचानक बहुत बदल गई हैं। राष्ट्र अब कुछ प्रमुख मुद्दों पर विश्वसनीय समाधान की ओर देख रहा है।

वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल के दाम गिरे हैं, जिससे यह 30 डॉलर प्रति बैरल तक आ गया। इससे सरकार को जब इसके दाम . 120 से लेकर 140 डॉलर के उच्च स्तर पर थे, उसकी तुलना में 1.5 लाख करोड़ रुपये का लाभ हुआ है। इससे चालू खाते के घाटे को कम करने में मदद मिली है और वित्तीय घाटे की स्थिति सुधरी है। हालाँकि अर्थव्यवस्था के कई अन्य घटक चिंता की वजह हैं, जहाँ वित्त मंत्री को खासतौर से हस्तक्षेप करने की ज़रूरत है।

ऐसा पहला क्षेत्र कृषि है, जिसकी देश की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। तकरीबन साठ फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर है, मगर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में इसका योगदान सिर्फ 17 फीसदी है। पिछले दो वर्षों से देश को कमज़ोर मानसून का सामना करना पड़ा है। कृषि क्षेत्र में हताशा बढ़ी है, जहाँ तुरंत ध्यान देने की ज़रूरत है। सूखे से बचाव के कुछ उपाय ज़रूर किए गए हैं, जिससे कृषि उत्पादन स्थिर बना हुआ है। मसलन, दालों का उत्पादन जहाँ 25.3 करोड़ टन पर स्थिर है, तो गन्ने और कपास जैसी नकद फ़सलों के उत्पादन में गिरावट आई है। कृषि बीमा की पुनरीक्षित योजना लाने का निर्णय अच्छा कदम है, मगर इसका असर दिखने में वक्त लगेगा। असल में ज़रूरत कृषि व्यापार व्यवस्था को बेहतर बनाने की है। हमें हर तरह के कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में समुचित बढ़ोतरी करनी ही चाहिए। इसमें जब मनरेगा के तहत राज्यों में बढ़ा हुआ आवंटन भी जुड़ जाएगा, तब ग्रामीण क्षेत्रों में खर्च करने की क्षमता भी बढ़ेगी। अर्थव्यवस्था के विकास के लिए ग्रामीण माँग का बढ़ना बहुत ज़रूरी है।

दूसरी बात यह है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की रफ़्तार सुस्त बनी हुई है। यूरोपीय अर्थव्यवस्थाएँ डेढ़ से दो फीसदी की गति से ही आगे बढ़ रही है। वर्ष 2016 में जर्मनी की विकास दर 1.7 फीसदी और फ्रांस की विकास दर के 1.5 फीसदी रहने की उम्मीद है। जापान को मंदी के लंबे दौर से बाहर निकलना है और इस वर्ष उसकी विकास दर 1.2 फीसदी रह सकती है। वहीं अमेरिका ने तेज़ी से बेहतर प्रदर्शन किया है, जबकि चीन की अर्थव्यवस्था, जो कि वैश्विक विकास की प्रमुख संवाहक है, मंदी से गुजर रही है। इसका असर विश्व व्यापार पर पड़ेगा।

तीसरी बात बैंकिंग क्षेत्र से जुड़ी है, जहाँ अमेरिका में लेहमन संकट पैदा होने पर खुशी की लहर देखी गई थी। अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों की समस्याओं ने इस क्षेत्र की कमजोरियों को उजागर कर दिया है। 2011 में एनपीए (गैर निष्पादित संपत्तियाँ) कुल 2.5 फीसदी था, जो कि 2013-14 में 4.5 फीसदी से 4.9 फीसदी के बीच हो गया और सितंबर 2015 में यह 5.1 फीसदी हो गया। परेशानी का कारण यह है कि सिर्फ प्रावधान करने से इस समस्या को नहीं सुलझाया जा सकता। यदि कुछ निश्चित क्षेत्र में मंदी का असर पूरे कर्ज पर पड़ेगा, तो एनपीए को बढ़ना ही है। इसीलिए नीतिगत उपाय ज़रूरी हैं, ताकि ऐसी इकाइयाँ बेहतर प्रदर्शन करें। इसके अलावा एक स्वतंत्र संस्था की भी ज़रूरत है, जो ऐसे खराब कर्ज का निपटारा कर सके।

पिछले बजट में आधारभूत संरचना खासतौर से ऊर्जा, सड़क, बंदरगाह और दूरसंचार जैसे क्षेत्रों में निवेश बढ़ाने का वायदा किया गया था। मगर कई ढांचागत क्षेत्रों में अपेक्षित नतीजे नहीं दिखते। यूएमपीपीएस (अल्ट्रा मेगा पॉवर प्रोजेक्ट्स) की स्थापना के लिए ऊर्जा क्षेत्र में किए गए निवेश से कोई लाभ नहीं होगा। छत्तीसगढ़ ने पहले ही संकेत दिए हैं कि यह परियोजना उनके यहाँ व्यावहारिक नहीं है। सड़क क्षेत्र में अच्छी प्रगति हुई है, मगर इसमें प्राथमिक तौर पर राज्यों से हुए निवेश का योगदान है। बजट में हवाई अड्डों के विस्तार का जिक्र नहीं था। यह ऐसा क्षेत्र है, जिसमें 12 फीसदी से अधिक की वृद्धि हो सकती है। इसमें निजी क्षेत्र से कोई निवेश नहीं आ रहा है। मध्य वर्ग के विस्तार के साथ इस ओर ध्यान देने की ज़रूरत है। इसके साथ ही बंदरगाहों को निगमित करने की बात भी थी, मगर अभी तक ऐसी पहल नहीं हुई।

8. स्टार्ट-अप और भारत

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 16 जनवरी को नई दिल्ली के विज्ञान भवन से ‘स्टार्ट-आप इंडिया-स्टैंडअप इंडिया’ नाम के जिस आंदोलन की शुरुआत की, वह भारत को विश्व में एक आर्थिक महाशक्ति के तौर पर स्थापित करने की दिशा में मील का एक पत्थर साबित हो सकता है।

1991 में नरसिंह राव की सरकार ने तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह की अगुवाई में जिस उदारीकरण की नीति का आगाज किया था, उसका मूल आधार दरअसल विदेशी पूँजी को भारत लाना और उसके आधार पर आर्थिक ग्रोथ हासिल करना था, लेकिन आर्थिक सुधारों के उस पहले चरण के बाद सुधारों की गति थम सी गई। नतीजा यह हुआ कि उस शुरुआत के लगभग डेढ़ दशक के बाद भी आज हम दहाई अंक के ग्रोथ रेट से कहीं दूर खड़े हैं।

दरअसल विदेशी पूँजी से देश के आर्थिक विकास की अपनी एक सीमा है और उस सीमा के पार जाने के लिए देश में अपनी एक बड़ी आंत्रप्रेन्योरिशप का खड़ा होना बहुत ज़रूरी है। इसे चीन के उदाहरण से भी समझा जा सकता है, जिसने लगातार दो दशकों तक दहाई अंकों से ज़्यादा की विकास दर हासिल कर दिखाई है।

चीन की यह विकास यात्रा केवल विदेशी पूँजी का नतीजा नहीं है। कम लोगों को यह पता है कि विश्व की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति बनने की यात्रा में चीन के उद्यमियों ने रीढ़ की हड्डी की भूमिका निभाई है। जैक मा, पोनी मा, रॉबिन ली, रेन झेंगफे, यांग युआनकिंग, ली जुन, यु गैंग, ली शुफु, शु लियाजी, डियान वांग, शेन हाइबिन, वांग जिंगबो, झांग यू जैसे युवा उद्यमियों की एक पूरी फ़ौज है, जिसने चीन के आर्थिक विकास को आसमान की बुलंदियों तक पहुँचाया है। दूसरी ओर पिछले डेढ़ साल में नया बिजनेस शुरू करने की दिशा में लालफीताशाही और नियमों की जटिलता कम करने की मोदी सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद विश्व बैंक की ‘ईज ऑफ डुईंग बिजनेस’ लिस्ट में भारत अब भी 130वें स्थान पर है। इन कोशिशों में पिछले साल अगस्त में सरकार द्वारा 2,000 करोड़ रुपये के ‘इंडिया एस्पीरेशन फंड’ की घोषणा भी शामिल है।

ऐसे में इतना तो साफ़ है कि भारत में फंडिंग स्टार्ट-अप की समस्या नहीं है। इसीलिए मोदी सरकार ने इस नए ‘स्टार्टअप इंडिया-सटैंडअप इंडिया’ को केवल फंडिंग प्रोग्राम न बनाकर एक आंदोलन बनाने की कोशिश की है। अगले 4 साल तक के लिए 2,500 करोड़ रुपये प्रति वर्ष के हिसाब से 10,000 करोड़ रुपये आवंटित करने के अलावा कई ऐसे फ़ैसले किए गए हैं, जो स्टार्ट-अप के बुनियादी ढाँचे को मज़बूत करने पर केंद्रित हैं। फंडिंग के अलावा नई स्थापित होने वाली कंपनियों के लिए क्रेडिट गारंटी फंड का गठन किया गया है, जिसमें हर साल 500 करोड़ रुपये दिए जाएंगे। रजिस्ट्रेशन को आसान बनाने के लिए सेल्फ सर्टिफिकेशन का ऐलान किया गया है और स्टार्ट-अप को 3 साल तक के लिए सरकारी निगरानी से मुक्त कर दिया गया है। स्टार्ट-अप केंद्र सिंगल प्वाइंट काउंटर होंगे जिस तक मोबाइल पर ऐप के जरिए भी पहुँचा जा सकेगा। पेटेंट शुल्क में 80 फीसदी की कमी कर दी गई है।

9. नुकसान का हर्जाना

हार्दिक पटेल मामले की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय को अगर यह कहना पड़ा है कि आंदोलनों के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को होने वाले नुकसान की जवाबदेही तय करने के लिए मानक तय किए जाने चाहिए, तो इसे समझा जा सकता है। शीर्ष अदालत की यह टिप्पणी बेशक पाटीदार आंदोलन के संदर्भ में है, लेकिन हरियाणा में आरक्षण के लिए हुए जाटों के आंदोलन के संदर्भ में भी यह उतनी ही प्रासंगिक है। दोनों आंदोलनों में सार्वजनिक संपत्ति को व्यापक नुकसान पहुंचाया गया। हरियाणा की ही बात करें, तो आंदोलनकारियों ने एकाधिक रेलवे स्टेशनों में आग लगाई, रोडवेज की बसें फूंक दी और दूसरे सरकारी भवनों को भी भारी नुकसान पहुंचाया। एसोचैम ने वहाँ हुए नुकसान का आँकड़ा करीब बीस हजार करोड़ रुपये का बताया है, जिसे उत्तर भारत के कुल नुकसान के संदर्भ में देखें, तो यह लगभग चौंतीस हजार करोड़ रुपये का बैठता है। मामला सिर्फ इन दो आंदोलनों के दौरान हुई क्षति का ही नहीं है, यह हर आंदोलन की सच्चाई है।

ऐसे आंदोलनों के पीछे राजनीतिक लाभहानि की मंशा होती है। कई बार राजनीतिक दल ऐसे आंदोलनों को सीधे या परोक्ष तौर पर समर्थन देते हैं, लेकिन इन्हें हिंसक होने से रोकने की कोई कोशिश नहीं होती। हरियाणा में आरक्षण के नाम पर कई दिनों तक हिंसा, दहशत और गतिरोध का जो आलम रहा, वह तो स्तब्ध करने वाला था। सुप्रीम कोर्ट ने ठीक कहा है कि आंदोलन के दौरान संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के लिए भाजपा, कांग्रेस या किसी भी संगठन को जवाबदेह ठहराया जा सकता है।

बेहतर हो कि सरकारें और राजनीतिक पार्टियाँ अदालत की इस टिप्पणी को सिर्फ उसकी क्षोभ भरी प्रतिक्रिया न समझें, बल्कि अब वे वाकई जिम्मेदार बनें, ताकि आंदोलनों को हिंसक होने से रोका जाए और सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान हो। ऐसी कोई न कोई व्यवस्था अब बनानी ही पड़ेगी, ताकि सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले छूट न पाएँ। सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी के संदर्भ में ऐसी कोई शुरुआत अभी से क्यों नहीं होनी चाहिए कि गुजरात और हरियाणा में सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वालों से हर्जाना वसूला जाए। ऐसी कोई व्यवस्था शुरू हो, तो सरकारें भी जिम्मेदार बनेंगी और प्रशासन भी।

10. वन कानूनों की समीक्षा का वक्त

जलवायु परिवर्तन के लिहाज से जंगल की अधिकता किसी भी राज्य के लिए गौरव की बात हो सकती है, पर यदि जनता के लिए वन परेशानियों का सबब बन जाएँ, तो यह चिंता का विषय है। 65 प्रतिशत वन क्षेत्र वाले उत्तराखंड राज्य में निरंतर कड़े होते जा रहे वन कानूनों के चलते पर्वतीय क्षेत्र में न केवल विकास कार्य बाधित हुई है, बल्कि ग्रामीणों की आजीविका भी प्रभावित हुई है।

उत्तराखंडी ग्रामीण समुदाय का वनों के साथ चोली-दामन का संबंध रहा है। कृषि, दस्तकारी एवं पशुपालन ग्रामीणों की आजीविका का पुश्तैनी आधार रहा है, जो वनों के बिना संभव नहीं हैं। पर्यावरण सुरक्षा तथा जैव विविधता के लिए ज़रूरी है कि वन एवं वन निर्भर समुदाय को एक दूसरे के सहयोगी के रूप में देखा जाय। दुर्भाग्यवश जब भी पर्यावरण, जैव विविधता संरक्षण अथवा जलवायु परिवर्तन की बात होती है, हमारे नीति नियंता ग्रामीणों को वनों का दुश्मन समझ कठोर वन कानूनों के जरिये समाधान ढूँढ़ने का प्रयास करते हैं। राज्य गठन के बाद उम्मीद थी कि वनों के प्रति सरकार के नज़रिये में बदलाव आएगा, पर ऐसा नहीं हुआ।

राज्य बनने के बाद पहला संशोधन वन पंचायत नियमावली में किया गया। 2001 में किए गए इस संशोधन के जरिये वन पंचायतों की स्वायत्तता समाप्त कर उन्हें वन विभाग के नियंत्रण में दे दिया गया। यहाँ मौजूद 12,089 तथाकथित वन पंयायतें 544964 हेक्टेयर वन क्षेत्र का प्रबंधन कर रही हैं। उत्तराखंड में मौजूद वन पंचायतें, जो कि जन आधारित वन प्रबंधन की सस्ती, लोकप्रिय एवं विश्व की अनूठी व्यवस्था थी, अब नहीं रहीं। आज उनकी वैधानिक स्थिति ग्राम वन की है। 2001 में ही वन अधिनियम में संशोधन कर आरक्षित वन से किसी भी प्रकार के वन उपज के दोहन को गैरजमानती जुर्म की श्रेणी में डाल दिया गया। अभयारण्य, नेशनल पार्क व बायोस्फेयर रिजर्व के नाम पर संरक्षित क्षेत्रों के विस्तार का क्रम जारी है।

इन संरक्षित क्षेत्रों में ग्रामीणों के सारे परंपरागत वनाधिकार प्रतिबंधित कर दिए गए हैं। अब इन संरक्षित क्षेत्रों की सीमा से लगे क्षेत्र को इको सेंसेटिव जोन बनाया जा रहा है। इको टूरिज्म के नाम पर जंगलों में भारी संख्या में पर्यटकों की आवाजाही से जंगली जानवरों के वासस्थल प्रभावित हो रहे हैं। वन संरक्षण अधिनियम, 1980 ने पहले ही पर्वतीय क्षेत्र में ढाँचागत विकास को काफ़ी हद तक प्रभावित किया है। वृक्ष संरक्षण अधिनियम, 1976 अपने ही खेत में स्वयं उगाए गए पेड़ को काटने से रोकता है।

इन वन कानूनों के चलते पर्वतीय क्षेत्र में न केवल विकास कार्य बाधित हुए हैं, बल्कि कृषि, पशुपालन एवं दस्तकारी पर भी हमला हुआ है। जंगली सूअर, साही, बंदर, लंगूर द्वारा फ़सलों को क्षति पहुँचाई जा रही है। तेंदुए मवेशियों को शिकार बना रहे हैं। वन्यजीवों के हमलों से हर साल राज्य में औसतन 26 लोगों की मौत हो रही है। अकेले 47 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले बिनसर अभयारण्य में प्रतिवर्ष 140 मवेशी तेंदुओं का शिकार बन रहे हैं, जबकि वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा है। कभी खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर गाँवों में हर साल बंजर भूमि का विस्तार हो रहा है। कांग्रेस सरकार अपने चुनाव घोषणापत्र में 25 प्रतिशत वन भूमि ग्राम समाज को लौटाने का वायदा भूल चुकी है। राज्य में वनाधिकार कानून लागू करने में भी अब तक की सरकारें नाकाम रहीं हैं। वन कानूनों की आड़ में वन विभाग द्वारा ग्रामीणों के उत्पीड़न की घटनाएँ बढ़ रही हैं। दूसरी तरफ संरक्षित क्षेत्रों के भीतर बड़े पैमाने पर गैरकानूनी तरीके से जमीनों की खरीद-फरोख्त जारी है। अकेले बिनसर अ यारण्य में 10 हेक्टेयर से अधिक जमीनों की खरीद-फरोख्त अवैध रूप से हुई है। वहाँ आलीशान रिसॉर्ट्स बनाए गए हैं। ऐसे में जंगल के प्रति ग्रामीणों का नजरिया बदल गया है। चिपको आंदोलन की शुरुआत करने वाले रैणी, लाता गाँव के लोग 25 साल बाद झपटो-छीनो का नारा देने को विवश हुए हैं। ऐसे में, मनुष्य को केंद्र में रखकर वन कानूनों की फिर से समीक्षा करने का वक्त आ चुका है।

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